गायत्री मंत्र का प्रादुर्भाव:-
(मनुस्मृति, अध्याय २)
मनुस्मृति के द्वतीय अध्याय में लिखा है । कि ब्रह्मा जी ने तीनों वेदो को दुह कर क्रम से अ, उ और म् अक्षरों की निकाला जिनके योग से प्रणव का प्रादुर्भाव हुआ ओर जिनके साथ भू: भुवः ओर स्व: नामक । रहस्यपूर्ण व्यहति का भी उदय हुआ हैं जिनसे पृथ्वी आकाश स्वर्ग का बोध होता है ।
इसी तरह ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों से गायत्री को भी निकाला जिसकी पवित्रता और शक्ति अचिन्त्य है ।
यदि कोई द्विजाति एकांत में प्रणव और व्यहति सहित गायत्री का नित्य १००० जप करेगा तो एक मास में बड़े से बड़े पाप से यह ऐसे मुक्त हो जायेगा जैसे केंचुल से सांप ।
प्रणव, तीनों व्यहति और त्रिपदा गायत्री मिल कर वेद का मुख या प्रधान अंग है ।
जो नित्य नियमपूर्वक प्रतिदिन तीन वर्ष तक गायत्री का जप करेंगे उनका शरीर निर्मल हों जायेगा ओर उनके सूक्ष्म शरीर में इतनी गति आ जायेगी कि वे वायु के समान सर्वत्र आ जा सकेंगे ।
तीन अक्षरों से बना प्रणव सर्व शक्तिमान परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम है । कुम्भक के समय प्रणव का जप करते हुए परमात्मा का ध्यान करना भगवान की सब से बडी पूजा है किन्तु गायत्री उससे भी श्रेष्ठ है । मौन की अपेक्षा सत्य श्रेष्ठ है ।
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वेदों में बतलायी गई विधियों के पालन के, अग्नि में आहुति देने के तथा अन्य पुण्य कर्मों के फल कभी कभी क्षीण होते ही हैं किन्तु अक्षर ब्रह्मा ॐ का कभी क्षय नहीं होता । जप करते समय मन्त्र के अक्षर धीरे धीरे शुद्ध उच्चारण करना चाहिए । इच्छानुसार संख्या में पुरश्चरण करना चाहिए ।
चारों ग्रस्थ्य अनुष्टान अपनी भिन्न भिन्न विधियो के साथ सब मिल कर भी गायत्री जप के फल के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीँ है ।
केवल गायत्री जप करने से ही बिना किसी अन्य धार्मिक कृत्य को किए ब्राह्मण वेदों में बतलाए कर्मो के फलो को प्राप्त करता है ।
यह सम्पूर्ण सृष्टि गायत्रीमय है । वाणी गायत्री का ही रूप है ओर वाणी की कृपा से ही सृष्टि की रक्षा होती है । गायत्री के चार चरण हैं और षड्गुणो से युक्त है । सारी सृष्टि गायत्री की ही महिमा का रूप हैं । गायत्री में जिस ब्रहा की उपासना की गई है उसी से सारा ब्रह्माण्ड व्याप्त है : –
छन्दोग्योपनिष्द (अध्याय ३, खंड १२)
“मनुष्य यश का रूप है । उसके जीवन के आरम्भिक २४ वर्ष प्रात: कृत्य के समान है । गायत्री में २४ अक्षर हैं जिनसे प्रात: संध्या को उपासना की जाती है ।“
छन्दोग्योपनिष्द (अध्याय ३, खंड १६)